हास्य-व्यंग्य >> हँसते हँसाते रहो हँसते हँसाते रहोप्रवीण शुक्ल
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हास्य-व्यंग्य कविताएँ
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ज़िन्दगी का सफर यूँ बिताते रहे
आँधियों में दिये हम जलाते रहे।
जूते पड़ने ही थे उनको हर बात पर
क्यों इधर की उधर वो लगाते रहे
आँसुओं के नगर में कटी ज़िन्दगी
हर घड़ी फिर भी हँसते-हँसाते रहे।
आँधियों में दिये हम जलाते रहे।
जूते पड़ने ही थे उनको हर बात पर
क्यों इधर की उधर वो लगाते रहे
आँसुओं के नगर में कटी ज़िन्दगी
हर घड़ी फिर भी हँसते-हँसाते रहे।
प्रवीण
कुमार
जीवन दृष्टि का पारदर्शी कवि
हास्य-व्यंग्य कविता को समर्पित एक नाम जो अपनी सम्पूर्ण काव्य धर्मिता
एवं बिना बैसाखी का सहारा लिए अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति और अपराजेय संकल्प के
साथ इन दिनों तेजी से उभरा है उस बुलंद शख़्सियत का नाम प्रवीण शुक्ल है।
प्रस्तुत संकलन में प्रवीण शुक्ल की हास्य-व्यंग्य कविताएँ संकलित हैं। इस
संकलन की लगभग सारी रचनाएँ मेरी परिचित हैं। एक ही संकलन में इतनी श्रेष्ठ
रचनाओं की एक साथ प्रस्तुति अपने आप में बेमिसाल है।
एक समय था जब हास्य-व्यंग्य लेखन शूद्र कर्म निरूपित किया जाता था। श्रद्धेय हरिशंकर परसाई जी के शब्दों में ‘व्यंग्य पहले अभिजात साहित्य वर्ग में शूद्र का स्थान रखता था। परन्तु अब इसे क्षत्रिय का दर्जा देकर साहित्य के कुलीन वर्गों ने अपनी जमानत में बैठने का आंशिक अधिकार दे दिया है। इसका मूल कारण जनमानस के साथ किया गया क्रूर व्यवहार तो है ही इस दोगली व्यवस्था पर पड़ने वाला आंतरिक दवाब भी है। हमारे हास्य-व्यंग्य के पूर्ववर्ती पुरोधाओं ने अपने सतत चिन्तन, सृजन, जीवन-दृष्टि का पारदर्शिता और समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का ईमानदारी से निर्वाह करते हुए यह पद प्राप्त किया है। अगर हम किसी उपमा का आश्रय लें तो हास्य-व्यंग्य वो पवित्र मंदिर हैं जिसमें किसी देवता की मूर्ति नहीं है केवल एक बिना फ्रेम का मगर बेदाग आईना है जिसमें व्यक्ति, समाज और देश अपनी शक्ल देखता है।
व्यवस्था द्वारा इस आईने को तोड़ने की लगातार कोशिशें की जा रही हैं मगर हास्य-व्यंग्य के क्षेत्र में इन दिनों कई नाम ऐसे उभर कर आये हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से जहाँ एक इस आइने को टूटने से बचाया है वहीं दूसरी ओर समाज का प्रतिबिम्ब प्रदर्शित करने की इसकी क्षमता को भी और प्रखर किया है। इन दिनों इस महत्त्वपूर्ण कार्य को करने वाले रचनाकारों में सबसे अधिक सृजनकर्मी और सशक्त नाम प्रवीण शुक्ला का है। उनके व्यक्तित्व की निश्छलता और धारदार सारगर्भिता लेखन ने मुझे भीतर तक आंदोलित किया है। प्रवीण शुक्ल हास्य-व्यंग्य के तो कुशल चितेरे हैं ही साथ छंद पर भी उनका पूरा अधिकार है।
इसलिए उन्होंने अपनी काव्यकला और धारदार लेखन से देश के करोड़ों श्रोताओं के मन-मस्तिष्क पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है। उनकी कविताएँ पढ़ने के बाद स्पष्ट हो जाता है कि वे हास्य-व्यंग्य के श्रेष्ठ, प्रबुद्ध और अप्रतिम कवि हैं। अर्से बाद हास्य-व्यंग्य के खुले झरोखे से हवा का ताज़ा और ख़ुशबूदार झोका आया है।
मेरे उपरोक्त कथन को प्रवीण शुक्ल का यह नवीन काव्य-संग्रह प्रमाणित भी करेगा। प्रबुद्ध पाठक जब अपने व्यंग्य क्षणों में से कुछ समय निकालकर इस अनूठे काव्य-संग्रह का अनुवाचन करेंगे तो प्रथम रचना से अंतिम रचना तक यह अहसास निश्चिंत ही जीवंत हो उठेगा कि काश ! इस संकल में कुछ पृष्ठ और होते। प्रवीण शुक्ल ने इतने कम समय में और इतनी कम उम्र में अपनी काव्य-साधना से जो नयी जमीन-तोड़ी है वो इतनी उर्वरा है कि उसमें केवल पौधे, फूल, तितली और शबनम ही नहीं वरन वो पेड़ भी हैं जो आने वाले कल की रेगिस्तानी तपन को अपनी शीतल छाँव देकर झुलसी हुई मनुष्यता के मुर्दा अहसासों को ऑक्सीजन भी देंगे।
प्रवीण शुक्ल ने उत्कृष्ट काव्य-सृजन को प्रणाम करते हुए तमाम प्रबुद्ध पाठकों से मेरा विनम्र निवेदन है कि इस काव्य-संकलन को आद्योपांत पढ़े बिना अपनी अलमारी की शोभा न बढ़ायें। कवि के एहसास बने इसी कामना के साथ
एक समय था जब हास्य-व्यंग्य लेखन शूद्र कर्म निरूपित किया जाता था। श्रद्धेय हरिशंकर परसाई जी के शब्दों में ‘व्यंग्य पहले अभिजात साहित्य वर्ग में शूद्र का स्थान रखता था। परन्तु अब इसे क्षत्रिय का दर्जा देकर साहित्य के कुलीन वर्गों ने अपनी जमानत में बैठने का आंशिक अधिकार दे दिया है। इसका मूल कारण जनमानस के साथ किया गया क्रूर व्यवहार तो है ही इस दोगली व्यवस्था पर पड़ने वाला आंतरिक दवाब भी है। हमारे हास्य-व्यंग्य के पूर्ववर्ती पुरोधाओं ने अपने सतत चिन्तन, सृजन, जीवन-दृष्टि का पारदर्शिता और समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का ईमानदारी से निर्वाह करते हुए यह पद प्राप्त किया है। अगर हम किसी उपमा का आश्रय लें तो हास्य-व्यंग्य वो पवित्र मंदिर हैं जिसमें किसी देवता की मूर्ति नहीं है केवल एक बिना फ्रेम का मगर बेदाग आईना है जिसमें व्यक्ति, समाज और देश अपनी शक्ल देखता है।
व्यवस्था द्वारा इस आईने को तोड़ने की लगातार कोशिशें की जा रही हैं मगर हास्य-व्यंग्य के क्षेत्र में इन दिनों कई नाम ऐसे उभर कर आये हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से जहाँ एक इस आइने को टूटने से बचाया है वहीं दूसरी ओर समाज का प्रतिबिम्ब प्रदर्शित करने की इसकी क्षमता को भी और प्रखर किया है। इन दिनों इस महत्त्वपूर्ण कार्य को करने वाले रचनाकारों में सबसे अधिक सृजनकर्मी और सशक्त नाम प्रवीण शुक्ला का है। उनके व्यक्तित्व की निश्छलता और धारदार सारगर्भिता लेखन ने मुझे भीतर तक आंदोलित किया है। प्रवीण शुक्ल हास्य-व्यंग्य के तो कुशल चितेरे हैं ही साथ छंद पर भी उनका पूरा अधिकार है।
इसलिए उन्होंने अपनी काव्यकला और धारदार लेखन से देश के करोड़ों श्रोताओं के मन-मस्तिष्क पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है। उनकी कविताएँ पढ़ने के बाद स्पष्ट हो जाता है कि वे हास्य-व्यंग्य के श्रेष्ठ, प्रबुद्ध और अप्रतिम कवि हैं। अर्से बाद हास्य-व्यंग्य के खुले झरोखे से हवा का ताज़ा और ख़ुशबूदार झोका आया है।
मेरे उपरोक्त कथन को प्रवीण शुक्ल का यह नवीन काव्य-संग्रह प्रमाणित भी करेगा। प्रबुद्ध पाठक जब अपने व्यंग्य क्षणों में से कुछ समय निकालकर इस अनूठे काव्य-संग्रह का अनुवाचन करेंगे तो प्रथम रचना से अंतिम रचना तक यह अहसास निश्चिंत ही जीवंत हो उठेगा कि काश ! इस संकल में कुछ पृष्ठ और होते। प्रवीण शुक्ल ने इतने कम समय में और इतनी कम उम्र में अपनी काव्य-साधना से जो नयी जमीन-तोड़ी है वो इतनी उर्वरा है कि उसमें केवल पौधे, फूल, तितली और शबनम ही नहीं वरन वो पेड़ भी हैं जो आने वाले कल की रेगिस्तानी तपन को अपनी शीतल छाँव देकर झुलसी हुई मनुष्यता के मुर्दा अहसासों को ऑक्सीजन भी देंगे।
प्रवीण शुक्ल ने उत्कृष्ट काव्य-सृजन को प्रणाम करते हुए तमाम प्रबुद्ध पाठकों से मेरा विनम्र निवेदन है कि इस काव्य-संकलन को आद्योपांत पढ़े बिना अपनी अलमारी की शोभा न बढ़ायें। कवि के एहसास बने इसी कामना के साथ
-मणिक वर्मा
हरदा, मध्य प्रदेश
हरदा, मध्य प्रदेश
कहावत उलट गयी
बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक हिन्दी मंच पर हास्य-व्यंग्य कविता की
मात्रा उतनी ही हुआ करती थी जितना की आटे में नमक। काव्य-पाठ के लिए
हास्य-व्यंग्य के एक या अधिकतम दो कवियों को बुलाया जाता था। जिनमें
प्रमुख हुआ करते थे सर्वश्री बेढब बनारसी, कुँज बिहारी पाण्डेय, गोपाल
प्रसाद व्यास, रमई काका, चिरंजीत उर्फ पैरोडीदास, विमलेश राजस्थानी और
रामसिख मनहर आदि। समय ने करवट बदली। मेरे श्रद्धेय गुरुवर गोपाल प्रसाद
व्यास जी के आशीर्वाद से सन् 1960 के बाद हास्य-व्यंग्य कवियों की एक
सशक्त पीढ़ी मंच पर प्रकट हुई। जिनमें सर्वश्री काका हाथरसी, ओमप्रकाश
आदित्य, जैमिनी हरियाणवी, हुल्लड़ मुरादाबादी और सुरेन्द्र शर्मा के नाम
से प्रमुखता से लिए जा सकते हैं। उसी समय में जो अन्य कवि हास्य-व्यंग्य
के क्षेत्र में उभरकर आये सर्वश्री सुरेश उपाध्याय, शैल चतुर्वेदी, मणिक
वर्मा, मधुप पाण्डे, गोविन्द व्यास, हरिऔम बेचैन, सुरेन्द्र सुकुमार जैसे
अनेक कवियों को शुमार किया जा सकता है।
ठीक एक दशक के अन्तराल के बाद एक और विस्फोट हुआ जिसमें सर्वश्री अशोक चक्रधर, प्रदीप चौबे, गुरु सक्सेना, मनोहर मनोज, आसकरण अटल और सूर्य कुमार पाण्डेय इत्यादि ने हास्य-व्यंग्य के क्षेत्र में धमाके के साथ अपनी पहचान बनाई। इन कवियों की कविताएँ जनमानस में इतनी अधिक लोकप्रिय हुईं कि मंच पर हास्य-व्यंग्य की माँग निरंतर बढ़ती चली गयी और कहावत उलट गयी। अब हास्य-व्यंग्य आटा बन चुका था। जिसकी वजह से अन्य विधाओं को मंच पर नमक का स्वरूप ग्रहण करना पड़ा। हास्य-व्यंग्य की इस बढ़ती हुई माँग को पूरी करने में सर्वश्री अरुण जैमिनी, महेन्द्र अजनबी, सुरेश अवस्थी, वेद प्रकाश, डॉ. सुरेन्द्र दुबे, शैलेष लोढ़ा, सम्पत सरल, श्याम ज्वालामुखी, डॉ. सुनील जोगी, संजय झाला, तेज नारायण शर्मा बेचैन आदि ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्हें कविता विरासत में मिली है। इस विरासत को जितनी शालीनता, शिष्टता और समझदारी के साथ प्रिय प्रवीण शुक्ल ने संभाला उसके लिए मैं उन्हें साधुवाद देता हूँ।
आजकल नयी पीढ़ी के अनेक कवियों की कविताएँ सुनने के बाद बाद एक कष्ट तो यह होता है कि वह धीरे-धीरे छन्द से विमुख होते जा रहे हैं। जहाँ पुराने अधिकांश हास्य-व्यंग्य कवि अपनी रचनाओं को छन्द की कसौटी पर कसने के बाद जनता के सम्मुख प्रस्तुत करते थे वहीं आजकल अनेक कवि अपनी तुकबन्दी को ही कविता समझ बैठे हैं। ऐसी स्थितियों के बीच प्रवीण शुक्ल की कविताएँ अन्धेरे में रोशनी की भाँति दिखाई देती हैं। कवित्व जैसे कठिन वार्णिक छन्द पर मेरे मार्गदर्शन में जितनी निपुणता के साथ प्रवीण ने अपनी पकड़ मजबूत की है उसका दूसरा उदाहरण दुर्लभ है। अतुकान्त कविताओं में भी अपने विषय का चयन प्रवीण शुक्ल बहुत सतर्कता के साथ करते हैं। वे अपनी कविताओं के माध्यम से केवल समस्या का वर्णन ही नहीं करते वरन् उन्हें समाधान के बिन्दु पर ले जाकर छोड़ते हैं।
प्रस्तुत संकलन ‘‘हँसते-हँसाते रहो’’ में प्रवीण शुक्ल की हास्य-व्यंग्य धारा की अधिकाँश छन्दोबद्ध रचनाएँ संकलित हैं। इन कविताओं में छन्द की विभिन्न विधाओं का समावेश सफलतापूर्वक किया गया है। इस संग्रह में कवित्त, हास्य-गीत और साथ-साथ रचनाकार ने भी अपनी व्यंजना प्रधान ग़ज़लों को भी शामिल किया है। एक ही रचनाकार ने इतनी विविधताओं का समावेश मुझे गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम की भाँति लगता है। गंभीर से गंभीर विषयों को बड़ी सहजता के साथ प्रस्तुत करते हुए प्रवीण शुक्ल जनमानस को केवल मुस्कराहटें ही नहीं बाँटते बल्कि सोचने के लिए भी विवश कर देते है। जहाँ एक ओर राजनैतिक विसंगतियाँ, सामाजिक विद्रूपताएँ, निरन्तर बढ़ता भ्रष्टाचार और साँस्कृतिक अवमूल्यन उनकी कविताओं की विषय वस्तु बनते हैं वहीं दूसरी ओर गाँवों और शहरों की संस्कृति के बीच आया बदलाव भी उन्हें भीतर तक आन्दोलित करता है। अपने इस कथन के प्रमाण में उनकी कविताओं की किसी पंक्ति को उद्वेलित करना मैं आवश्यक नहीं समझता। क्योंकि उनकी कविताओं के झरोखे में झाँकने के बाद आप स्वयं ही मेरे कथन की पुष्टि करने पर विवश हो जाऐंगे। इस संग्रह की समस्त रचनाएँ मेरी नज़र से गुज़र चुकी हैं, जिनमें छन्दों की शिल्पगत आवश्यकताओं के साथ-साथ तुकान्तों का निर्वहन भी सफलतापूर्वक किया गया है।
इन दिनों बहुत सारे गद्यकार कवि का मुखौटा लगाकर प्रिंट मीडिया के माध्यम से अपनी बेसिर-पैर की कथ्यहीन तथा रसहीन कविता के परोसते हुए कविता जैसी ज़मीन जुड़ी हुई और शाश्वत विधा को जनमानस से दूर करने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे समय में प्रवीण शुक्ल जैसे समर्थ और सिद्ध रचनाकार ही आशा की किरण के रूप में दिखाई देते हैं मेरा मानना है कि कविता में गोस्वामी तुलसी दास जी जैसी सहजता चाहिए, बनावट या दुरुहता नहीं। हिन्दुस्तान की संस्कृति वेदों से लेकर आज तक छन्दों में ही रची बसी हुई हैं। छन्द हमेशा जीवित रहा है और रहेगा। इसलिए इस पुस्तक की छन्दोबद्ध रचनाओं का खुले दिले से स्वागत करना परम आवश्यक है आज की परिस्थितियों को ढूँढ़ते रह जाओगे। ‘‘हँसते-हँसाते रहो’’ के प्रकाशन पर प्रिय प्रवीण शुक्ल को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ और अनन्त आशीर्वाद।
ठीक एक दशक के अन्तराल के बाद एक और विस्फोट हुआ जिसमें सर्वश्री अशोक चक्रधर, प्रदीप चौबे, गुरु सक्सेना, मनोहर मनोज, आसकरण अटल और सूर्य कुमार पाण्डेय इत्यादि ने हास्य-व्यंग्य के क्षेत्र में धमाके के साथ अपनी पहचान बनाई। इन कवियों की कविताएँ जनमानस में इतनी अधिक लोकप्रिय हुईं कि मंच पर हास्य-व्यंग्य की माँग निरंतर बढ़ती चली गयी और कहावत उलट गयी। अब हास्य-व्यंग्य आटा बन चुका था। जिसकी वजह से अन्य विधाओं को मंच पर नमक का स्वरूप ग्रहण करना पड़ा। हास्य-व्यंग्य की इस बढ़ती हुई माँग को पूरी करने में सर्वश्री अरुण जैमिनी, महेन्द्र अजनबी, सुरेश अवस्थी, वेद प्रकाश, डॉ. सुरेन्द्र दुबे, शैलेष लोढ़ा, सम्पत सरल, श्याम ज्वालामुखी, डॉ. सुनील जोगी, संजय झाला, तेज नारायण शर्मा बेचैन आदि ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्हें कविता विरासत में मिली है। इस विरासत को जितनी शालीनता, शिष्टता और समझदारी के साथ प्रिय प्रवीण शुक्ल ने संभाला उसके लिए मैं उन्हें साधुवाद देता हूँ।
आजकल नयी पीढ़ी के अनेक कवियों की कविताएँ सुनने के बाद बाद एक कष्ट तो यह होता है कि वह धीरे-धीरे छन्द से विमुख होते जा रहे हैं। जहाँ पुराने अधिकांश हास्य-व्यंग्य कवि अपनी रचनाओं को छन्द की कसौटी पर कसने के बाद जनता के सम्मुख प्रस्तुत करते थे वहीं आजकल अनेक कवि अपनी तुकबन्दी को ही कविता समझ बैठे हैं। ऐसी स्थितियों के बीच प्रवीण शुक्ल की कविताएँ अन्धेरे में रोशनी की भाँति दिखाई देती हैं। कवित्व जैसे कठिन वार्णिक छन्द पर मेरे मार्गदर्शन में जितनी निपुणता के साथ प्रवीण ने अपनी पकड़ मजबूत की है उसका दूसरा उदाहरण दुर्लभ है। अतुकान्त कविताओं में भी अपने विषय का चयन प्रवीण शुक्ल बहुत सतर्कता के साथ करते हैं। वे अपनी कविताओं के माध्यम से केवल समस्या का वर्णन ही नहीं करते वरन् उन्हें समाधान के बिन्दु पर ले जाकर छोड़ते हैं।
प्रस्तुत संकलन ‘‘हँसते-हँसाते रहो’’ में प्रवीण शुक्ल की हास्य-व्यंग्य धारा की अधिकाँश छन्दोबद्ध रचनाएँ संकलित हैं। इन कविताओं में छन्द की विभिन्न विधाओं का समावेश सफलतापूर्वक किया गया है। इस संग्रह में कवित्त, हास्य-गीत और साथ-साथ रचनाकार ने भी अपनी व्यंजना प्रधान ग़ज़लों को भी शामिल किया है। एक ही रचनाकार ने इतनी विविधताओं का समावेश मुझे गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम की भाँति लगता है। गंभीर से गंभीर विषयों को बड़ी सहजता के साथ प्रस्तुत करते हुए प्रवीण शुक्ल जनमानस को केवल मुस्कराहटें ही नहीं बाँटते बल्कि सोचने के लिए भी विवश कर देते है। जहाँ एक ओर राजनैतिक विसंगतियाँ, सामाजिक विद्रूपताएँ, निरन्तर बढ़ता भ्रष्टाचार और साँस्कृतिक अवमूल्यन उनकी कविताओं की विषय वस्तु बनते हैं वहीं दूसरी ओर गाँवों और शहरों की संस्कृति के बीच आया बदलाव भी उन्हें भीतर तक आन्दोलित करता है। अपने इस कथन के प्रमाण में उनकी कविताओं की किसी पंक्ति को उद्वेलित करना मैं आवश्यक नहीं समझता। क्योंकि उनकी कविताओं के झरोखे में झाँकने के बाद आप स्वयं ही मेरे कथन की पुष्टि करने पर विवश हो जाऐंगे। इस संग्रह की समस्त रचनाएँ मेरी नज़र से गुज़र चुकी हैं, जिनमें छन्दों की शिल्पगत आवश्यकताओं के साथ-साथ तुकान्तों का निर्वहन भी सफलतापूर्वक किया गया है।
इन दिनों बहुत सारे गद्यकार कवि का मुखौटा लगाकर प्रिंट मीडिया के माध्यम से अपनी बेसिर-पैर की कथ्यहीन तथा रसहीन कविता के परोसते हुए कविता जैसी ज़मीन जुड़ी हुई और शाश्वत विधा को जनमानस से दूर करने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे समय में प्रवीण शुक्ल जैसे समर्थ और सिद्ध रचनाकार ही आशा की किरण के रूप में दिखाई देते हैं मेरा मानना है कि कविता में गोस्वामी तुलसी दास जी जैसी सहजता चाहिए, बनावट या दुरुहता नहीं। हिन्दुस्तान की संस्कृति वेदों से लेकर आज तक छन्दों में ही रची बसी हुई हैं। छन्द हमेशा जीवित रहा है और रहेगा। इसलिए इस पुस्तक की छन्दोबद्ध रचनाओं का खुले दिले से स्वागत करना परम आवश्यक है आज की परिस्थितियों को ढूँढ़ते रह जाओगे। ‘‘हँसते-हँसाते रहो’’ के प्रकाशन पर प्रिय प्रवीण शुक्ल को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ और अनन्त आशीर्वाद।
-अल्हड़ बीकानेरी
श्याम-निकुँज’’
श्याम-निकुँज’’
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